Hazaribagh: हजारीबाग जिले में इन दोनों निजी स्कूलों में बहुत से प्रकाशक अपनी पुस्तकों को बेचने के लिए मार्केटिंग का उपयोग करने लगे हैं। निजी स्कूलों के मालिकों को भी अनेक प्रलोभन मिलते हैं। यह अभिभावकों को परेशान करता है क्योंकि निजी स्कूल के संचालक को 50 प्रतिशत से 60 प्रतिशत कमीशन मिलेगा।
निजी स्कूलों में किताबें दी जा रही हैं, लेकिन उनके संचालक अभिभावकों को एक परसेंट भी छूट नहीं देंगे, जैसा कि कमीशन का खेल दिखाया जा रहा है। एमआरपी रेट पर लेख उपलब्ध हैं। 20 पेज की किताब में ₹300 और ₹400 की एमआरपी हैं। यही कारण है कि बच्चों की पढ़ाई अब व्यवसाय का साधन बन गई है। स्कूल संचालकों को 60 प्रतिशत तक कमीशन मिलता है। ऐसे में अभिभावक पीछे रहते हैं और प्रकाशक पूरा मुनाफा कमाते हैं।
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‘शुभ संदेश’ की जांच में चौंकाने वाले खुलासे हुए
बुधवार को, “शुभम संदेश” ने पता लगाया कि कई कंपनी के एजेंट स्कूलों में जाकर मार्केटिंग कर रहे हैं। इसमें स्पार्क कंपनी की नर्सरी टू यूकेजी के लिए स्कूल संचालक के साथ 60% का कमीशन निर्धारित हुआ। साथ ही, कमीशन संचालकों को 1 से 8 के लिए 50%, Blue Win Publishing को 50% और Seagull Publishing को 60% दे रहा है। यह दिल्ली, गुजरात और मथुरा जैसे शहरों से प्रकाशकों के एजेंटों को हजारीबाग में किताबें बेचने पर काम कर रहा है।
स्कूल को पुस्तकें देने का आदेश दिया गया है। इस पर भी जिले के होलसेलर स्कूल संचालक को पुरस्कार दे रहे हैं। यह आपको बता सकता है कि स्कूल संचालक कैसे अच्छी कमाई करते हैं। वह अभिभावक से पैसा लेकर दुकानदार को देता है, और संचालक ही बीच का पैसा डकार जाता है। वहीं ब्रांडेड प्रकाशन, जैसे होली फेथ, ओरिएंटर, भारतीय भवन और सरस्वती, दुकानदार को भी 25 से 30 प्रतिशत तक कमीशन देने की पेशकश कर रहे हैं।
क्या कहते हैं अभिभावक
टाटी झरिया के मुकेश कुमार, एक अभिभावक, ने बताया कि वह पिछले तीन वर्षों से शहर के एक निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे हैं। जिसमें स्पार्क पब्लिकेशन से नर्सरी पुस्तकें 1600 रुपये, एलकेजी 1700 रुपये और यूकेजी 2200 रुपये लगते हैं। सागर प्रकाशन की किताबों की कीमत नर्सरी के लिए 1100 रुपये, एलकेजी के लिए 1300 रुपये और यूकेजी के लिए 1600 रुपये है, जबकि अल्फाबेट किताबों की कीमत 10 से 20 रुपये बाजार में है।
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सरकार या पदाधिकारी इन प्रकाशनों और स्कूल संचालकों पर प्रतिबंध लगाते तो शायद स्कूलों में किताबों की दुकानें नहीं होती। अभिभावक किताब दुकानदार से कम खरीद सकते हैं। लेकिन डिस्ट्रीब्यूटर सीधे स्कूल पहुंचकर प्रलोभन देकर अपनी पुस्तकें बेचते हैं। पुस्तकें खरीदने के लिए अभिभावकों को बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है। उनके सामने कोई और चारा नहीं है।
यद्यपि संपन्न परिवार इसका सामना करते हैं, लेकिन गरीब परिवार इसका सामना करते हैं। क्या गरीब बच्चे सिर्फ सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे? अगर कोई गरीब परिवार कुछ बचाकर निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का प्रयास करता है, तो वे सिर्फ किताब खरीदने में बहुत पैसा खर्च करेंगे। यह एक बार के लिए है।इसका पुनर्भरण मूल्य जीरो है। अगले वर्ष एक नई किताब खरीदनी पड़ती है। रीसेल होता तो कुछ होता। लेकिन उसे कबाड़ी वाले को पुरानी किताब बताना होगा।